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भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के न चाहते हुए भी राजस्थान में समीकरण वसुंधरा राजे के पक्ष में कैसे होते जा रहे हैं?

अवधेश आकोदिया

भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की उदयपुर और अजमेर संभाग में शक्ति प्रदर्शन से सियासी पारा चढ़ गया है. इस दौरान उन्होंने मंदिरों में दर्शन किए और पिछले कुछ महीनों में दिवंगत हुए भाजपा नेताओं के घर शोक व्यक्त किया. ऊपरी तौर पर देखने से उनका यह कार्यक्रम धार्मिक और निजी लग रहा है, लेकिन इस दौरान जिस ढंग से पार्टी के नेताओं का जमावड़ा लग रहा है और स्वागत करने के लिए कार्यकर्ताओं का हुजूम उमड़ा, उससे यह साफ जाहिर होता है कि इसका मकसद राजनैतिक है.

यह तीसरा मौका है जब वसुंधरा राजे ने धार्मिक या निजी कार्यक्रम की शक्ल में शक्ति प्रदर्शन किया है. पिछले साल 8 मार्च को अपने जन्मदिन के मौके पर उन्होंने भरतपुर में देवदर्शन के बहाने सियासी ताकत दिखाई. वहीं, इस साल अक्टूबर में केंद्रीय जल शक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत की मां और भंवरी देवी अपहरण व हत्याकांड में आरोपी पूर्व मंत्री महिपाल मदेरणा के निधन पर उन्हें श्रद्धांजलि देने के बहाने जोधपुर में भी ऐसा ही किया.

इस प्रकार के कार्यक्रमों को वरिष्ठ पत्रकार मनीष गोधा वसुंधरा राजे की राजस्थान की राजनीति में अपना दबदबा कायम रखने की रणनीति बताते हैं. वे कहते हैं, ‘2018 के विधानसभा चुनाव से पहले और बाद बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व का वसुंधरा के प्रति जो रूखा रवैया रहा है उसे देखते हुए उनके लिए खुद राजस्थान की राजनीति में प्रासंगिक बनाए रखना जरूरी है. चूंकि बिना पार्टी की अनुमति के वे कोई राजनैतिक कार्यक्रम नहीं कर सकती हैं इसलिए धार्मिक और निजी कार्यक्रमों के बहाने शक्ति प्रदर्शन कर रही हैं.’

हालांकि वसुंधरा का विरोधी खेमा इन यात्राओं का सवाल इन यात्राओं पर सवाल उठा चुका है. यही वजह है कि उन्होंने मौजूदा कार्यक्रम की शुरूआत में ही यह साफ कर दिया कि वे कोई राजनैतिक यात्रा नहीं कर रही हैं. राजे ने कहा, ‘अपने सहयोगियों के निधन पर संवेदना व्यक्त करने के कार्यक्रम को मीडिया के कुछ लोग राजनैतिक यात्रा बता कर भ्रम फैला रहे है. शोक व्यक्त करने का ये कार्यक्रम राजनीतिक यात्रा नही है. मैं तो कोराना के कारण चल बसे अपनो को श्रद्धा सुमन अर्पित करने और भगवान के दर्शन कर प्रदेश की ख़ुशहाली की कामना करने आई हूं.’

वसुंधरा राजे ने मौजूदा यात्रा के लिए जो समय चुना है वह भी काबिलेगौर है. बीजेपी का नेतृत्व इस समय इसी महीने की शुरूआत में विधानसभा की दो सीटों पर हुए उप चुनाव के परिणाम के बाद से सदमे में है. गौरतलब है कि वल्लभनगर सीट पर पार्टी का उम्मीदवार चौथे स्थान पर रहा जबकि धरियावद में तीसरे स्थान पर. इनमें से धरियावद सीट 2018 में हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने बड़े अंतर से जीती थी.

यह पहली बार नहीं है जब उप चुनाव में बीजेपी को झटका लगा है. इससे पहले छह सीटों पर हुए उप चुनाव में बीजेपी सिर्फ एक सीट जीत सकी जबकि एक सीट उसके सहयोगी दल के खाते में गई. यही नहीं, पंचायत चुनाव के पहले चरण को छोड़कर किसी भी स्थानीय चुनाव में भाजपा बढ़त हासिल नहीं कर पाई. हर बार हार के बाद बीजेपी के किसी न किसी नेता ने पार्टी के प्रदेश नेतृत्व की क्षमता पर सवाल उठाए और वसुंधरा को कमान सौंपने का बयान दिया.

वल्लभगर और धरियावद में मिली करारी हार के बाद बीजेपी के दो पूर्व विधायकों— प्रह्लाद गुंजल और भवानी सिंह राजावत ने यह बयान दिया कि यदि राजस्थान में पार्टी की कमान वसुंधरा के हाथों में नहीं सौंपी तो 2023 के विधानसभा चुनाव में भी पार्टी की ऐसी ही दुर्दशा होगी. दोनों नेता अभी भी इस बात पर कायम हैं. भवानी सिंह राजावत कहते हैं, ‘बीजेपी ने वसुंधरा राजे के चेहरे पर 2003 में 200 में से 120 और 2013 163 सीटें जीती थीं. यदि 2023 के चुनाव में उन्हें आगे नहीं किया गया तो पार्टी को बहुमत नहीं मिलेगा.’

इसके अलावा पिछले साल जुलाई में पूर्व उप मुख्यमंत्री सचिन पालयट की अगुवाई में 18 विधायकों की बगावत के समय में भी बीजेपी के कई नेताओं ने दबे स्वर में यह बात कही थी कि यदि ‘ऑपरेशन लोटस’ की कमान वसुंधरा राजे के हाथ में होती तो नतीजा दूसरा होता. वहीं, पार्टी के वरिष्ठ विधायक और पूर्व विधानसभा अध्यक्ष कैलाश मेघवाल ने कांग्रेस की सरकार को गिराने की कोशिश पर सवाल खड़े किए थे.

दरअसल, 2018 के विधानसभा चुनाव के बीजेपी की हार के बाद पार्टी ने राजस्थान में वसुंधरा राजे के किनारे कर जितने भी राजनैतिक प्रयोग किए हैं वे सभी अभी तक औंधे मुंह गिरे हैं. केंद्रीय नेतृत्व अभी तक राजे का कोई विकल्प तो तैयार नहीं कर पाया है, लेकिन मुख्यमंत्री के दावेदारों की लंबी सूची जरूर बन गई है. प्रदेशाध्यक्ष डॉ. सतीश पूनिया के अलावा करीब एक दर्जन नेताओं के नाम इस फेहरिस्त में शामिल हैं. इस दौड़ में शामिल सभी नेताओं को लगता है कि पार्टी 2023 में बिना चेहरा घोषित किए विधानसभा का चुनाव लड़ेगी और जिसे चाहेगी उसे मुख्यमंत्री बना देगी.

राजनैतिक विश्लेषक मुकेश शर्मा के अनुसार बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व यह मानकर बैठा था कि विधानसभा चुनाव आते—आते प्रदेश की गहलोत सरकार के खिलाफ इतनी एंटी इनकंबेंसी हो जाएगी कि पार्टी बिना चेहरे के ही आसानी से सत्ता में आ जाएगी, लेकिन अब ऐसा नहीं लग रहा. वे कहते हैं, ‘कांग्रेस सरकार कई मोर्चों पर नाकाम नहीं रही है, लेकिन बीजेपी इसे भुना नहीं पाई. सरकार के खिलाफ कोई बड़ा आंदोलन करने की बजाय पार्टी आपसी खींचतान में ही उलझी रही.’

मुकेश शर्मा कहते हैं, ‘कांग्रेस को लंबे अरसे के बाद यह लगने लगा है कि यदि पूरी ताकत से चुनाव लड़ा जाए तो सत्ता में वापसी संभव है. दूसरी ओर भाजपा अभी तक यह ही तय नहीं कर पा रही है कि चुनाव किसी चेहरे को आगे कर लड़ा जाएगा या सामूहिक नेतृत्व में. यदि कोई चेहरा घोषित नहीं किया जाता है तो मुख्यमंत्री का दावेदार हर नेता यह चाहेगा कि उसके खेमे के ज्यादा विधायक जीतें. यदि टिकट वितरण में यह खींचतान हुई तो यह स्थिति बीजेपी के लिए आत्मघाती साबित हो सकती है.’

बीजेपी के एक वरिष्ठ विधायक नाम उजागर नहीं करने की शर्त पर कहते हैं कि पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व राजस्थान को लेकर चिंतित है और अपनी रणनीति बदलने पर विचार कर रहा है. वे कहते हैं, ‘कांग्रेस सरकार के खिलाफ इतनी एंटी इनकंबेंसी नहीं है कि बीजेपी बिना चेहरे के चुनाव के मैदान में उतरे और जिसे टिकट दे वह जीत जाए. मौजूदा परिस्थितियों में पार्टी के लिए एक ऐसे चेहरा जरूरी हो चला है जो पूरे प्रदेश में लोकप्रिय हो और जातिगत समीकरणों को साधने की कुव्वत रखता हो. इस लिहाज से वसुंधरा राजे का कोई विकल्प नहीं है.’

यही वजह है कि वसुंधरा प्रदेश के अलग—अलग हिस्सों में शक्ति प्रदर्शन कर यह साबित करने में जुटी है कि लोकप्रियता के मामले में वे ही अव्वल है. हर कार्यक्रम में वे 36 कौम को साथ लेकर चलने की बात कह रही हैं. पिछले महीने जोधपुर में उन्होंने कहा, ‘किसी के चाहने से क्या होता है? 36 की 36 कौम का प्यार जरूरी है. जिन्हें इनका प्यार मिलेगा, आगे जाकर राज वही करेगा.’

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