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कैमरे में कक्षा: पहरा या सुरक्षा

– खुशबू शर्मा

समें कोई दो राय नहीं कि दिल्ली सरकार ने सरकारी स्कूली शिक्षा व्यवस्था को सुधारने की दिशा में बेहतरीन काम किया है। करिक्युलम से लेकर लर्निंग-टीचिंग मेथड्स और इन्फ्रास्टक्चर से लेकर टीचर्स ट्रेनिंग के लिए एक्सपर्ट्स की मदद ली गई है। बेहतरीन काम के प्रभावी नतीजे भी सामने आए, लेकिन सरकारी स्कूलों में कैमरे लगाने का कदम जो दिल्ली सरकार उठाने जा रही है (जिसके तहत 400 करोड़ रूपए ख़र्च कर दिल्ली की सरकारी स्कूलों के चप्पे-चप्पे पर कैमरे लगाए जाऐंगे), उसे जनसामान्य से इतर अगर एक्सपर्ट्स डिसकोर्स में देखा जाए तो इस फैसले में गहरी ख़ामियाँ नज़र आती हैं। कहा जा रहा है कि क्लासरूम सहित पूरे स्कूल परिसर में कैमरे लगाकर उसका एक्सेस न सिर्फ स्कूल प्रशासन बल्कि बच्चों के अभिभावकों को भी दिया जाएगा जिससे वे अपने बच्चों की गतिविधियों पर नज़र रख सकें और कक्षा में पढ़ाने वाले अध्यापक भी अपनी ड्यूटी के प्रति संजीदगी रखें। यहाँ एक प्रकार का विरोधाभास साफ नज़र आ रहा हैं, जहाँ एक ओर दिल्ली सरकार स्टैंडर्ड टीचिंग-लर्निंग मेथड्स की बात करती हैं, वहीं दूसरी ओर कैमरे के माध्यम से निगरानी कर बच्चे के स्वच्छंद रूप से सीखने- समझने की मूलभूत आजादी का हनन किया जा रहा है। इस बात से हम सभी सहमत होंगे कि जहाँ डर होता है वहाँ सीखने-सिखाने का स्पेस स्वतः सिकुड़ने लगता है और पढ़ाई-लिखाई सिर्फ औपचारिकता बनकर रह जाती है। अगर कक्षा में अध्यापकों पर नज़र रखी जाएगी तो वे भी बहुत ही सावधानी पूर्वक एक सेट पैटर्न के हिसाब से पढ़ाऐंगे और इनोवेशन का स्कोप ख़त्म हो जाएगा। अध्यापकों को अपनी ड्यूटी के प्रति ईमानदार और संजीदा बनाने के लिए और  तरीके भी अपनाए जा सकते हैं। रेगुलर और प्रोपर ट्रेनिंग के साथ अप्रेज़ल जैसे मोटीवेशनल तरीकों से अध्यापकों के काम में बेहतरी संभव है, और दिल्ली की स्कूलों के टीचर्स से बेहतर उदाहरण कहाँ मिलेगा जहाँ सरकारी स्कूलों का बोर्ड परीक्षाओं का परिणाम निजी संस्थानों से बेहतर रहा है। इसमें अध्यापकों के बहुमूल्य योगदान को नकारा नहीं जा सकता।

निगरानी के माध्यम से आप टीचर्स की परफोरमेंस में सुधार नहीं कर सकते। अगर उन्हें यह पता होगा कि उन पर हर समय किसी की नज़र है, जो उनके पढ़ाने के ढंग को लगातार टेस्ट कर रही है, तो वे सिर्फ उस नज़र को संतुष्ट करने के लिए पढ़ाएगे ना कि बच्चों को सिखाने के लिए। मैंने इसी मसले में कई अभिभावकों को यह कहते सुना कि “बच्चों को इतनी प्राइवेसी की क्या ज़रूरत? कैमरे के माध्यम से हम यह पता कर पाऐंगे कि हमारा बच्चा शैतानी तो नहीं करता, क्लास में उसका व्यवहार कैसा है, वो पढ़ता लिखता है या नहीं?” यह मानसिकता अपने आप में बच्चों के लिए घातक है। अभिभावक चाहते हैं कि उनका बच्चा एक सेट बिहेवरल पैटर्न के हिसाब से व्यवहार करे, ना क्लास में बात करे और ना उसकी नज़रें ब्लैकबोर्ड से हटे। फिर हर डेविएंट बिहेवियर वाले बच्चे के साथ क्या होता है, यह तो बताने की ज़रूरत नहीं है। अधिकतर माँ बाप बहुत ही सतही तौर पर चीजों को देखते हैं  और इसका असर बच्चे की मनःस्थिति पर भी पड़ता है। बच्चे को चाहिए कि उसे स्वच्छंद रूप से विकसित होने का अवकाश मिले। क्लासरूम में ब्लैकबोर्ड और टीचर के अलावा, सीखने के और भी माध्यम हैं। पीयर ग्रुप लर्निंग उनमें से एक है जहाँ बच्चा अपने दोस्तों से इंटरेक्शन कर बहुत कुछ सीखता है। लेकिन हमारी स्कूली शिक्षा ने क्लासरूम में बातचीत करने को  क्राइम की श्रेणी में रख दिया है, इससे बच्चा सीखने की एक बहुत ही नैसर्गिक और आसान प्रक्रिया से,  कम से कम क्लासरूम के भीतर तो वंचित रह जाता है। क्लास में कैमरे लगाने से बच्चों का बिहेवियर और भी ज़्यादा रेगुलेट किया जाएगा। इससे बच्चों के लर्निंग एटिट्यूड और मन:स्थिति पर क्या असर पड़ेगा, इस पर एक बार गहरी बहस की जानी चाहिए। निगरानी, मुख्यत: पढ़ने लिखने की गतिविधियों में किसी भी प्रकार से गुणवत्ता  इंश्योर नहीं कर सकती।

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