

शास्त्री कोसलेन्द्रदास, अध्यक्ष – दर्शन विभाग, जगद्गुरु राामनन्दाचार्य राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर
यह श्लोक भारतीय दर्शन की मूल ध्वनि को प्रकट करता है कि मनुष्य के लिए स्वधर्म (अपने धर्म) का पालन पराए धर्म के उत्तम पालन से कहीं श्रेष्ठ है। अपने धर्म का पालन करते हुए मृत्यु भी कल्याणकारी है, जबकि परधर्म भय और विनाश की ओर ले जाता है।
यहां स्वधर्म का अर्थ केवल जाति, वर्ण या आश्रमधर्म तक सीमित नहीं है। गीता में स्वधर्म का आशय उस मार्ग से है, जो मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति, गुण और क्षमता के अनुकूल हो। प्रत्येक व्यक्ति का स्वभाव भिन्न होता है। कोई शूरवीर है तो किसी का स्वभाव ज्ञान की खोज में है, कोई सेवा-भाव से युक्त है तो कोई वाणिज्य में कुशल। शरणागतवत्सल श्रीकृष्ण समझाते हैं कि जो भी कर्म प्रकृति के अनुरूप हो, वही ‘स्वधर्म’ है।
दार्शनिक दृष्टि से देखें तो स्वधर्म आत्मा की सहज गति है। इसे त्यागकर यदि हम दूसरों के धर्म का अनुकरण करते हैं, तो वह हमारे लिए अस्वाभाविक और अंततः घातक सिद्ध होता है। जगद्गुरु श्रीशंकराचार्य का ‘गीताभाष्य’ में कथन है – स्वधर्मे स्थितस्य निधनं मरणमपि श्रेयः परधर्मे स्थितस्य जीवितात्। तात्पर्य है कि स्वधर्म यदि गुणहीन भी हो, तो भी वह श्रेष्ठ है, क्योंकि उसमें मरना भी आत्मोन्नति का साधन है, वहीं परधर्म चाहे कितना ही सुंदर और आकर्षक क्यों न लगे, वह आत्मविरोधी होने के कारण भय और पतन को जन्म देता है। ऐसे में स्वधर्म को त्यागकर परधर्म में जिया गया जीवन भी व्यर्थ ही है। वैष्णवाचार्य भगवान श्रीरामानुज के ‘गीता-भाष्य’ और आचार्य वेदान्तदेशिक की ‘गीता-तात्पर्यचन्द्रिका’ में भी स्वधर्म का पालन ज्ञानयोग जैसे ऊंचे मार्ग से अधिक हितकारी है, क्योंकि यह व्यक्ति की सहज प्रकृति से जुड़ा होता है और उसमें टिके रहना ही स्थिरता और शांति का आधार है। शुद्धाद्वैताचार्य महाप्रभु वल्लभाचार्य का कथन है – स्वधर्मस्तु न हेयः परधर्मोऽपि नोपादेयः। अर्थात् व्यक्ति के लिए स्वधर्म कभी हेय यानी निंदित नहीं होता और परधर्म उपादेय ग्रहण करने योग्य और उपयोगी नहीं है। अद्वैताचार्य मधुसूदन सरस्वती ने इस पर बल दिया है कि स्वधर्म का परित्याग नहीं करना चाहिए और परधर्म का ग्रहण नरक की ओर ले जाने वाला है।
व्यावहारिक जीवन में इस श्लोक का महत्व तब और भी गहरा हो जाता है, जब आधुनिक समाज में हम प्राय: दूसरों की सफलता देखकर उसी के मार्ग का अनुकरण व अनुसरण करने लगते हैं। जैसे – विद्यार्थी नकल से सफलता चाह रहे हैं। व्यवसायी दूसरों की योजनाओं से लाभ प्रापत कर रहे हैं और राष्ट्र में विदेशी नीतियों को अपनाकर प्रगति की आकांक्षा की जाती रही है। ऐसे में, गीता शास्त्र में सर्वेश्वर भगवान श्रीकृष्ण का यह सदुपदेश है कि वास्तविक उन्नति तब ही संभव है, जब हम अपनी सांस्कृतिक एवं धार्मिक मौलिकता के अनुरूप कर्म करें। एक किसान का स्वधर्म खेती है, उसमें ही उसकी सच्ची साधना है। यदि वह अपने धर्म को छोड़कर किसी और क्षेत्र में केवल दूसरों की देखादेखी करने लगे तो वह न संतोष पाएगा और न ही सफलता। इसी प्रकार एक विद्वान का धर्म अध्ययन और चिंतन है, जबकि एक योद्धा का धर्म पराक्रम और रक्षा है। जब तक मनुष्य अपनी प्रवृत्ति के अनुसार कर्म करता है, तब तक वह आत्मसंतुष्टि और शांति का अनुभव करता है।
इस श्लोक में एक और गूढ़ संदेश है – सच्चाई और प्रामाणिकता का। गीता सिखाती है कि किसी और का मार्ग चाहे कितना ही श्रेष्ठ क्यों न लगे, यदि वह हमारे स्वभाव के अनुकूल नहीं है, तो उसे अपनाना आत्मवंचना है। जीवन का वास्तविक मूल्य सफलता या असफलता में नहीं, बल्कि अपने धर्म के प्रति निष्ठा में है। यदि किसी की मृत्यु भी अपने धर्म का पालन करते हुए होती है तो वह मृत्यु महान है। वह आत्मा को उच्च लोकों में प्रतिष्ठित करती है। इसके विपरीत परधर्म का आचरण जीवन भर का भय और अंततः अधःपतन लाता है।
आज की परिस्थितियों में भी यह श्लोक सर्वथा प्रासंगिक है। वैश्वीकरण और प्रतियोगिता की दौड़ में हम अपने मूल स्वभाव और संस्कृति से विमुख हो रहे हैं। परिवार, समाज और राष्ट्र – सभी के लिए गीता का यही संदेश है कि अपनी सांस्कृतिक परम्परा को बनाए रखते हुए प्रगति की ओर बढ़ना ही श्रेयस्कर है। यही स्वधर्म का पालन है और यही जीवन के लिए श्रेयस्कर मार्ग है।
गीता में ‘स्वधर्म’ पालन का यह उपदेश धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में युद्धरत अर्जुन के लिए नहीं था, बल्कि यह सम्पूर्ण मानवता के लिए शाश्वत सत्य सिद्धांत है। स्वधर्म ही आत्मविकास का द्वार है। स्वधर्म ही सांस्कृतिक स्थिरता का आधार है और स्वधर्म ही अंततः मोक्ष की ओर ले जाने वाला मार्ग है। परधर्म चाहे कितना ही आकर्षक क्यों न लगे, वह भयावह है। इसीलिए श्रीकृष्ण ने बार-बार अर्जुन को यही सिखाया कि वेदविरुद्ध मार्ग पर मत चलो। अपने धर्म और कर्तव्य को पहचानो और उसी के अनुसार कर्मों का संपादन करो। यही जीवन की सबसे बड़ी सफलता है, जो भगवद्गीता का ‘स्वधर्म’ का शाश्वत संदेश है।








